प्रकाश का अध्ययन भी दो खंडों में किया जाता है। पहला खंड, ज्यामितीय प्रकाशिकी, प्रकाश किरण की संकल्पना पर आधृत है। दर्पणों से प्रकाश का परार्वतन और लेंसों तथा प्रिज्मों से प्रकाश का अपवर्तन, ज्यामितीय प्रकाशिकी के विषय है। सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी, फोटोग्राफी कैमरा तथा अन्य उपयोगी प्रकाशिकी यंत्रों की क्रियाविधि ज्यामितीय प्रकाशिकी के नियमों पर ही आधृत है।
प्रकाशिकी का दूसरा खंड भौतिक प्रकाशिकी है। इसमें प्रकाश की मूल प्रकृति तथा प्रकाश और द्रव्य की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन किया जाता है। प्रकाश सूक्ष्म कणों का संचार है, ऐसा मानकर न्यूटन ने ज्यामितीय प्रकाशिकी के मुख्य परिणामों की व्याख्या की। पर 19वीं शताब्दी में प्रकाश के व्यतिकरण की घटनाओं का आविष्कार हुआ। इन क्रियाओं की व्याख्या कणिका सिद्धांत से संभव नहीं है, अत: बाध्य होकर यह मानना पड़ा कि प्रकाश तरंगसंचार ही है। ऊपर वर्णित मैक्सवेल के विद्युतचुंबकीय सिद्धांत ने प्रकाश के तरंग सिद्धांत को ठोस आधार दिया।
भौतिक प्रकाशिकी का एक महत्वपूर्ण भाग [[स्पेक्ट्रामिकी (Spectroscopy) है। इसमें प्रकाश तरंगों के स्पेक्ट्रम का अध्ययन किया जाता है। अणु परमाणुओं की रचना को समझने में इस प्रकार के अध्ययन का प्रमुख योगदान रहा है। विज्ञान की यह शाखा तारा भौतिकी की आधारशिला है।
प्रकाश के सिद्धान्त
प्रकाश क्या है और वह किस रूप में स्थानांतरित होता है, इन प्रश्नों के समाधान के लिये समय समय पर अनेक सिद्धांत बनाए गए थे, किंतु इस समय विद्युतचुंबकीय सिद्धांत तथा क्वांटम सिद्धांत ही सर्वमान्य हैं।
प्रकाश का कणिका सिद्धान्त
सबसे पहला, पूर्णत: वैज्ञानिक सिद्धांत विख्यात अँग्रेज वैज्ञानिक न्यूटन (सन् 1642-1727) द्वारा प्रतिपादित हुआ था। इसमें यह माना गया था कि प्रदीप्त वस्तु में से प्रकाश अत्यंत सूक्ष्म तथा तीव्रगामी कणिकाओं के रूप में निकलता है। ये कणिकाएँ साधारण द्रव्य की नहीं होतीं, क्योंकि इनमें भार बिलकुल नहीं होता। विभिन्न रंगों के प्रकाश की कणिकाओं में भेद केवल उनके विस्तार का होता है : लाल प्रकाश की कणिकाएँ बड़ी होती हैं और बैंगनी की छोटी। इस परिकल्पना के द्वारा प्रकाश द्वारा उर्जा का संचारण, शून्यकाश में गमन, सरल रेखा गमन आदि बातें तो स्पष्ट: समझ में आ जाती हैं, क्योंकि ये घटनाएँ तो न्यूटन ही के सुप्रतिष्ठित गतिवैज्ञानिक नियमानुकूल हैं। इन कणिकाओं को पूर्णत: प्रत्यास्थी मान लेने से उन्हीं नियमों से परावर्तन के मुख्य नियम (परावर्तन कोण = आपतन कोण) की भी सरल व्याख्या हो जाती है, किंतु एक पदार्थ से दूसरे में प्रवेश करते समय प्रकाशकिरणों के मुड़ने (अपवर्तन या Refraction) की व्याख्या के लिये यह परिकल्पना बनानी पड़ी कि दोनों पदार्थो के पार्थक्यतल के निकटवर्ती प्रदेश में और उसकी अभिलंब दिशा में कणिका पर कुछ बल लगता है। जब यह बल आकर्षण बल होता है तब तो कणिकावेग का अभिलंब संघटक बढ़ जाता है और किरण अभिलंब की ओर मुड़ जाती है, यथा वायु से जल में जाते समय और जब पराकर्षण बल लगता है तब किरण विपरीत दिशा में मुड़ जाती है, यथा जल से वायु में जाते समय। इसी से अपवर्तन का नियम आपतन कोण की ज्या / अपवर्तन कोण की ज्या = अपवर्तनांक भी प्रमाणित हो जाता है। परावर्तन का कारण भी अत्याधिक पराकर्षण ही समझा जा सकता है। यह भी स्पष्ट है कि इस सिद्धांत के अनुसार वायु की अपेक्षा जल में प्रकाश का वेग अधिक होना चाहिए।
किंतु एक बात ऐसी थी जो इस सिद्धांत के द्वारा समझ में नहीं आई। प्रत्यक्ष अनुभव के अनुसार जब भी प्रकाश दो पदार्थो के पार्थक्यतल (इंटरफेस) पर पड़ता है, तो उसका अंश तो परावर्तित हो जाता है और कुछ द्वितीय पदार्थ में प्रवेश कर जाता है। इस यौगपदिक (साइमल्टैनिअस) परावर्तन और अपवर्तन के लिये आवश्यक है कि कुछ प्रकाश कणिकाओं पर तो पराकर्षण बल लगे और कुछ पर आर्कषण। यह कैसे संभव हो सकता है ? इस आपत्ति को दूर करने के लिये न्यूटन ने यह परिकल्पना बनाई कि प्रकाशकणिकाओं एक प्रकार का दौरा (fit) आता है, जिससे कभी वह आकृष्ट हो जाती है और कभी पराकृष्ट। ये दौरे क्यों आते हैं, इस संबंध से भी एक विचित्र कल्पना बनाई गई कि प्रकाश के गमन में सहायता करनेवाला वायु से भी हलका एक और माध्यम होता है जो वायु, जल, काच आदि प्रत्येक पदार्थ में भरा रहता है। पार्थक्यतल पर प्रकाशणिका की टक्कर से जो तरंगें उत्पन्न होती हैं उन्हीं के कारण ये दौरे आते हैं। बॉसकोविच (Boscovich) तथा बिओ (Biot) ने इनका कारण यह बताया कि चुंबक के समान प्रकाशकणिका के दो ध्रुव होते हैं। एक पर आर्कषण बल लगता है तो दूसरे पर प्रतिकर्षण। अत: जैसा ध्रुव उस समय आगे होता है वैसा ही बल कणिका पर लग जाता है। किंतु व्यतिकरण (Interference) तथा ध्रुवण (Polarisation) की घटनाओं की व्याख्या इस सिद्धांत के द्वारा संभव नहीं हुई। और जब ठोस पदार्थो में प्रकाश का वेग प्रयोग द्वारा नाप लिया गया, तब इस सिद्धांत के विपरीत वह वायु की अपेक्षा जल में कम निकला; यह वैपरीत्य इस सिद्धांत के लिये घातक था। अत: इसका परित्याग करके तरंगसिद्धांत को मान्यता देनी पड़ी।
प्रकाश का तरंग सिद्धान्त
न्यूटन के ही समकालीन जर्मन विद्वान हाइगेंज (Huyghens) ने,सन् 1678 ई. में 'प्रकाश का तरंग सिद्धान्त' (wave theory of light) का प्रतिपादन किया था। इसके अनुसार समस्त संसार में एक अत्यंत हलका और रहस्यमय पदार्थ ईथर (Ether) भरा हुआ है : तारों के बीच के विशाल शून्याकाश में भी और ठोस द्रव्य के अंदर तथा परमाणुओं के अभ्यंतर में भी। प्रकाश इसी ईश्वर समुद्र में अत्यंत छोटी लंबाईवाली प्रत्यास्थ (Elastic) तरंगें हैं। लाल प्रकाश की तरंगें सबसे लंबी होती हैं और बैंगनी की सबसे छोटी।
इससे व्यतिकरण और विर्वतन की व्याख्या तो सरलता से हो गई, क्योंकि ये घटनाएँ तो तरंगमूलक ही हें। ध्रुवण की घटनाओं से यह भी प्रगट हो गया कि तरंगें अनुदैर्ध्य (Longitudinal) नहीं, वरन् अनुप्रस्थ (Transvers) हैं। हाइगेंज की तरंगिकाओं को परिकल्पना से अपर्वतन और परावर्तन तथा दोनों का योगपत्य भी अच्छी तरह समझ में आ गया। किंतु अब दो कठिनाइयाँ रह गईं। एक तो सरल रेखा गमन की व्याख्या न हो सकी। दूसरे यह समझ में नही आया कि ईथर की रगड़ के कारण अगणित वर्षो से तीव्र वेग से घूमते हुए ग्रहों और उपग्रहों की गति में किंचिन्मात्र भी कमी क्यों नहीं होती। इनसे भी अधिक कठिनाई यह थी कि न्यूटन जैसे महान् वैज्ञानिक का विरोध करने का साहस और सामर्थ्य किसी में न था। अत: प्राय: दो शताब्दी तक कणिकासिद्धांत ही का साम्राज्य अक्षुण्ण रहा।
सन् 1807 में यंग (Young) ने व्यतिकरण का प्रयोग अत्यंत सुस्पष्ट रूप में कर दिखाया। इसके बाद फ़ेनल (Fresnel) ने तरंगों द्वारा ही सरल रेखा गमन की भी बहुत अच्छी व्याख्या कर दी। 1850 ई. में फूको (Foucalult) ने प्रत्यक्ष नाप से यह भी प्रमाणित कर दिया कि जल जैसे अधिक घनत्वावाले माध्यमों में प्रकाशवेग वायु की अपेक्षा कम होता है। यह बात कणिकासिद्धांत के प्रतिकूल तथा तरंग के अनुकूल होने के कारण तरंगसिद्धांत सर्वमान्य हो गया। इसके बाद तो इस सिद्धांत के द्वारा अनेक नवीन और आश्चर्यजनक घटनाओं की प्रागुक्तियाँ भी प्रेक्षण द्वारा सत्य प्रमाणित हुई।
अब प्रश्न यह रहा कि ईथर किस प्रकार का पदार्थ है। यह विदित है कि किसी भी प्रत्यास्थ द्रव में
तरंग का वेग = {\displaystyle v={\sqrt {\frac {P}{\rho }}}\,} {\displaystyle v={\sqrt {\frac {P}{\rho }}}\,} -- (१)
जहाँ
P आयतन प्रत्यास्थता गुणांक (बल्क मॉडलस) ; {\displaystyle \rho } {\displaystyle \rho } घनत्व
यदि तरंग अनुदैर्ध्य है तो v = ((K + 4 n /3) / p) 1/2 -- (२)
यदि तरंग अनुप्रस्थ है तो v = (n / p) 1/2 -- (३)
संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा ज्ञात नहीं है जिसकी प्रत्यास्थता तथा घनत्व के मान ऐसे हों कि उसकी तरंग का वेग प्रकाश के ज्ञात वेग 3 x 108मी. प्रति सेकंड हो सके। अत: प्रकाश तरंग का माध्यम द्रव्य नहीं हो सकता। वह कोई विलक्षण पदार्थ है और इन तरंगों की अनुप्रस्थता के कारण यह भी निर्विवाद है कि ईथर कोई ठोस अथवा जेली (Jelly) के सदृश अर्धठोस (Semisolid) पदार्थ है, क्योंकि द्रवों और गैसों में दृढ़ता के अभाव के कारण अनुप्रस्थ तरंग चल ही नहीं सकती। इसके अतिरिक्त प्रकाश की किसी भी प्रकार का अनुदैर्ध्य तरंगों का हमें पता नहीं लगा है। अत: संभवत: ऐसी तरंगों का वेग अनंत होता है, अर्थात् समीकरण (2) के अनुसार ईथर का K = अनन्त है और ईथर अंसपीड्य (Incompressible) है। फिर भी इस ठोस और असंपीड्य पदार्थ के द्वारा ग्रहों के वेग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इस कठिनाई का समाधान केल्विन (Kelvin) ने यह किया कि ईथर का घन्त्व p और दृढ़ता n दोनों ही अत्यंत कम हैं, किंतु उनका अनुपात ऐसा है कि समीकरण (3) के अनुसार तरंग वेग 3 x 108 मी. प्रति सेकंड हो जाता है।
विभिन्न पारदर्शक पदार्थो में प्रकाश के विभिन्न वेगों के विषय में निम्नलिखित तीन सिद्धांत बनाए गए थे :
(क) फ्रेनेल का सिद्धांत : सब द्रव्यों में ईथर की प्रत्यास्थता, K बराबर होती है, किंतु उसके घनत्व p, में फर्क होता है।
(ख) मैकुला (Macullah) का सिद्धांत : सब द्रव्यों में ईथर का घनत्व बराबर रहता है, किंतु प्रत्यास्थता में फर्क होता है।
(ग) केलिव्न का सिद्धांत : अनुदैर्ध्य तरंग का वेग अनन्त के स्थान में 0 माना गया। फलत: समीकरण (2) K + 4/3n = 0, अर्थात् K = - 4/3n. इसका अर्थ यह है कि ईथर का K ऋणात्मक है। वह असंपीड्य नहीं, किंतु संकुचनशील (Contractile) है। उसका आयतन कम करने के लिये उसपर दबाव बढ़ाना नहीं पड़ता वरन् घटना पड़ता है।
किंतु इन तीनों में से एक भी सिद्धांत प्रेक्षण की कसौटी पर ठीक न उतरा। यह सत्य है कि फ्रेनेल ने अपने सिद्धांत से पारदर्शक पदार्थो द्वारा अपवर्तित तथा परावर्तित किरणों की तीव्रता के संबंध में वे विख्यात सूत्र प्राप्त कर लिय थे जो प्रेक्षण द्वारा सत्य प्रमाणित हो गए हैं। किंतु ऐसा एक गलती के कारण हुआ था, जो सौभाग्यवश उन्होंने कर दी थी। जब ग्रीन (Green) ने उस भूल को सुधारने का प्रयत्न किया, तो परिणाम बिल्कुल असत्य निकले।
प्रकाश का विद्युतचुम्बकीय सिद्धान्त
वैद्युत् और चुंबकीय बलों की व्याख्या के लिये फैराडे (Faraday) ने एक प्रकार के सर्वव्यापी ईथर की परिकल्पना बनाई थी और यह बताया था कि इस ईथर की परिकल्पना बनाई थी और यह बताया था कि इसे ईथर की विकृति के कारण ही ये बल पैदा होते हें। मैक्सवेल ने इस विषय की विशद विवेचना करके 1865 ई. में यह परिणाम निकाला कि इन बलों का स्थानांतरण तरंग के रूप में होता है।
प्राय: 20 वर्ष तक यह सिद्धांत वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ, क्योंकि आधार केवल गणित था और विद्युतचुंबकीय तरंग प्रयोग द्वारा प्रेक्षित नहीं हो सकी थी। 1887 ई. में हेर्ट्स (Hertz) ने यह कमी भी पूरी कर दी। अब तो ऐसी तरंगें बड़ी सरलता से उत्पन्न की जा सकती हैं। प्रकाशतरंगों की लंबाई अत्यंत छोटी होती है, किंतु इसके अतिरिक्त इनमें और रेडियो की तरंगों में कोई अंतर नहीं है।
इसके बाद द्रव्य में इलेक्ट्रॉनों की उपस्थिति के द्वारा वर्णविश्लेषण की भी संतोषजनक व्याख्या हो गई। अपवर्तित तथा परावर्तित प्रकाश की तीव्रता तथा ध्रुवण संबंधी नियम तथा क्रिस्टलों में द्विअपवर्तन के नियम भी सही प्राप्त हो गए। इसके अतिरिक्त अब तो प्रकाश पर वैद्युत तथा चुंबकीय क्षेत्र के फ़ैरेडे प्रभाव तथा ज़ेमान प्रभाव (Zeeman effect) तथा वैद्युत क्षेत्र के केर प्रभाव (Kerr effect) की इस सिद्धांत से अच्छी व्याख्या हो जाती है।
किंतु ईथर के अस्तित्व के संबंध में बड़ी कठिनाई उपस्थित हो गई। अनेक प्रयोगों से यह प्रमाणित हो गया है कि जब कोई द्रव्य चलता है, तो उसमें आबद्ध ईथर भी उसके साथ साथ चलता है, किंतु कम वेग से। फलत: इस वेग की दिशा में चलनेवाले प्रकाश का वेग कुछ बढ़ जाता है और विपरीत दिशा में चलनेवाले प्रकाश का वेग कुछ घट जाता है। किंतु जब माइकेलसन (Michelson) तथा मॉर्लि (Morley) ने इस तथ्य के आधार पर पृथ्वी की गति का वेग नापने का प्रयत्न अत्यंत सुग्राही विधि से किया तब आशा से विपरीत यह मालूम हुआ कि पृथ्वी की गति का प्रकाश के वेग पर कुछ भी असर नहीं होता। इस प्रयोग की मीमांसा करने में ही आइन्स्टाइन (Einstein) ने 1905 ई. में अपने आपेक्षिकता सिद्धांत का प्रतिपादन किया और वे इस परिणाम पर पहुँचे कि ईथर जैसी कोई वस्तु है ही नही।
प्रकाश का क्वाण्टम सिद्धान्त
तरंग सिद्धान्त के प्रतिपादन के बाद के कुछ वर्षो में कुछ बातें ऐसी भी मालूम हुई जो प्रकाश के तरंगमय स्वरूप के सर्वथा प्रतिकूल हैं। इनकी व्याख्या तरंगसिद्धांत के द्वारा हो ही नहीं सकती। इनके लिये प्लांक (Planck) के क्वांटम सिद्धांत का सहारा लेना पड़ता है।
क्वांटम सिद्धान्त का प्रतिपादन 1900 ई. में ऊष्मा विकिरण के संबंध में हुआ था। प्रकाश विद्युत (Photo electricity) की घटना का, जिसमें कुछ धातुओं पर प्रकाश के पड़ने से इलैक्ट्रॉन उत्सर्जित हो जाते हैं और तत्वों के रेखामय स्पेक्ट्रम (Line spectrum) की घटना का, जिसमें परमाणु में से एकवर्ण प्रकाश निकलता है, स्पष्टतया संकेत किसी नवीन प्रकार के कणिकासिद्धांत की ओर है। आइन्स्टाइन ने इन कणिकाओं का नाम फ़ोटान (Photon) रख दिया है। ये कणिकाएँ द्रव्य की नहीं हैं, पुंजित ऊर्जा की हैं। प्रत्येक फ़ोटोन में ऊर्जा E का परिमाण प्रकाश तरंग की आवृत्ति n का अनुपाती होता है, E = hn (जहाँ h प्लांक का नियतांक है)। कॉम्पटन प्रभाव (Compton effect) इनके बिना समझ में आ ही नहीं सकता।
ज्यामितीय प्रकाशिकी
प्रकाशिकी ज्यामितीय (Geometrical Optics) प्रकाशिकी का वह भाग है जो प्रकाश को 'किरण' जैसा मानकर उसकी गति का अध्ययन किया जाता है। इसलिये इसे 'किरण प्रकाशिकी' (ray optics) भी कहते हैं। किरण प्रकाशिकी की मान्यता के अनुसार जब तक समांगी माध्यम में प्रकाश गति करता है तब तक उसका मार्ग सीधी रेखा में होता है। जहाँ पर दो माध्यम मिलते हैं, वहाँ प्रकाश किरणे मुड़ जाती हैं (किरणे दो भागों में बंट भी सकतीं हैं।)
वस्तुतः प्रकाशिकी का बड़ी सीमा तक सरलीकरण ही ज्यामितीय प्रकाशिकी है। ज्यामितीय प्रकाशिकी के अन्तर्गत प्रकाश के विवर्तन और व्यतिकरण की कोई व्याख्या नहीं दी जा सकती। किन्तु ज्यामितीय प्रकाशिकी छबियों के निर्माण एवं प्रकाशिक विपथम (optical aberrations) आदि की व्याख्या करने में सक्षम है। दूसरे शब्दों में, ज्यामितीय प्रकाशिकी के द्वारा परिणाम तब तक शुद्ध आते हैं जब तक वस्तुओं का आकार प्रकाश के तरंगदैर्घ्य की तुलना में काफी बड़ा हो।
परिचय
ज्यामितीय प्रकाशिकी, प्रकाशिकी का वह अंग है जिसमें प्रकाश की किरणों की ज्यामिति तथा प्रकाशकीय तंत्र (optical system) द्वारा प्रतिबिंब-निर्माण-प्रक्रिया का अध्ययन किया जाता है। इसमें प्रकाशीय उपकरणों (optical instruments) के गुणों तथा उन लेंस|लेंसों]], दर्पणों एवं समपार्श्वो (प्रिज्म) का विवरण सन्निहित होता है जिनके द्वारा प्रकाशीय उपकरणों की रचना होती है।
यह सुज्ञात तथ्य है कि प्रकाश की किरणें सरल रेखा में गमन करती हैं। उनके इस गुण को प्रकाश का ऋजुरेखीय संचरण (rectilinear propagation of light) कहते हैं। जिस पदार्थ से होकर प्रकाश की किरणें गुजरती हैं, उसे 'माध्यम' (medium) कहते हैं। जब प्रकाश की किरणें किसी माध्यम से चलकर दूसरे माध्यम में पहुँचती हैं तो तीन क्रियाएँ होती हैं :
(1) प्रकाश की किरणों का कुछ, या अधिक, भाग दोनों माध्यमों के विभाजक तल से पहले ही माध्यम में वापस लौटा दिया जाता है। इस क्रिया का परावर्तन (Reflection) कहते हैं।
(2) प्रकाश की किरणों का कुछ भाग विभाजक तल पर अवशोषित हो जाता है। और
(3) प्रकाश की किरणों का शेष भाग दूसरे माध्यम में चला जाता है। इस क्रिया को अपवर्तन (refraction) कहते हैं।
ज्यामितीय प्रकाशिकी के अभिगृहीत (axioms)
ज्यामितीय प्रकाशिकी कुछ सरल मान्यताओं (नियमों) पर आधारित है। वे हैं -
(१) समांग माध्यम में प्रकाश की किरणें सरल रेखा में चलतीं हैं।
(२) प्रकाश किरणों के स्वतंत्र वितरण का नियम
(३) परावर्तन का नियम
(४) अपवर्तन का नियम (स्नेल का नियम)
(५) प्रकशपुंज (light beam) की उत्क्रमगति का नियम - इसके अनुसार, किसी प्रकाश पुंज की गति को, उसकी आगे की तरफ की गति के ठीक विपरीत दिशा में गति करते हुए भी माना जाता है।
परावर्तन और अपवर्तन प्रक्रिया के समय प्रकाश की किरणें कुछ नियमों का पालन करती हैं।
परावर्तन
परावर्तन संबंधी नियम निम्नलिखित है :
1. आपाती किरण, विभाजक तल में आपतन बिंदु पर डाला गया अभिलंब एवं परावर्तित किरण, तीनों एक ही तल में स्थित होते हैं
(2) आपाती एवं परावर्तित किरणें अभिलंब के परस्पर विपरीत ओर स्थित होती हैं और
(3) आपतन एवं परावर्तन कोण परस्पर बराबर होते हैं।
अपवर्तन
अपवर्तन संबंधी नियम निम्नलिखित हैं :
1. आपाती किरण, विभाजक तल में आपतन बिंदु पर डाला गया अभिलंब एवं अपवर्तित किरण, तीनों एक ही तल में स्थित होते हैं।
2. आपाती एवं अपवर्तित किरणें अभिलंब के परस्पर विपरीत ओर स्थित होती हैं। और
(3) आपतन एवं अपवर्तन कोणों की ज्याओं (sines) में एक स्थिर अनुपात होता है। इस अनुपात को ग्रीक अक्षर म्यू (m) द्वारा व्यक्त किया जाता है और इसे पहले माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का अपवर्तनांक कहा जाता है।
प्रिज्म से अपवर्तन
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन
गोलीय तल पर अपवर्तन
सममित प्रकाशीय प्रणलियाँ (Symmetrical Optical System) तथा प्रधान बिंदु (Cardinal Point)
सामान्यत: व्यवहृत होनेवाले प्रकाशीय यंत्रों के अपवर्तक तल ऐसे परिक्रमण तल (surface of revolution) होते हैं, जिनका सममिति अक्ष (axis of symmetry) सर्वनिष्ठ (common) होता है। इस सममिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि अक्ष पर स्थित प्रत्येक बिंदु का बिंब अक्ष पर ही स्थित किसी दूसरे बिंदु पर बनता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि संपूर्ण अक्ष स्वयं अपना ही बिंब होता है।
किसी अपवर्तक तंत्र के अक्ष पर एक ऐसा बिंदु होता है जिससे निकलनेवाली प्रकाश की किरणें अपवर्तक तंत्र के बाहर अक्ष के समांतर निकलती हैं और इस प्रकार उस बिंदु का बिंब अनंत (infinity) पर बनता है। उस बिंदु को अपवर्तक तंत्र (या लेंस) का प्रथम फोकस बिंदु कहते हैं। प्रथम फोकस बिंदु से होकर अक्ष के समकोणिक खींचा हुआ माना गया तल प्रथम फोकस तल कहा जाता है। इस तल के किसी बिंदु से चलनेवाली किरणें अपवर्तन के उपरांत परस्पर समांतर हो जाती है।
द्वितीय फोकस बिंदु अपवर्तक तंत्र के अक्ष पर स्थित वह बिंदु है जिसपर अनंत से अक्ष के समांतर आनेवाली सभी किरणें अभिसरित (converge) होती हैं, अर्थात् जिस बिंदु पर, अनंत पर स्थित वस्तु का बिंब बनता है। इस बिंदु से अक्ष के समकोणिक कल्पित समतल को द्वितीय फोकस तल कहते हैं।
किसी लेंस के प्रथम फोकस बिंदु से अपसारित (diverge) होनेवाली किरणों का शंकु लेंस के दोनों धरातलों पर विचलित होता है। आपाती किरणो को आगे की ओर तथा निर्गत किरणों को पीछे की ओर बढ़ाने पर, जो परिच्छेद बिंदु मिलते हैं, वे सर्वनिष्ठ तल पर स्थित होते हैं, जिसे लेंस का प्रथम मुख्य समतल कहते हैं। लेंस के दो धरातलों पर दो बार विचलन, मुख्य समतल पर किरण के एक ही बार विचलन के तुल्य होता है। इसी प्रकार लेंस के अक्ष के समांतर आनेवाली किरणें अपवर्तन के उपरांत द्वितीय फोकस बिंदु की ओर अग्रसर होती हैं। यदि आपाती किरणों को आगे की ओर तथा अपवर्तित किरणों को पीछे की ओर बढ़ाया जाय तो उनके परिच्छेद बिंदु एक समतल पर स्थित होंगे, जिसे द्वितीय मुख्य समतल कहते हैं। इन समतलों के अक्ष के साथ परिच्छेद बिंदु को क्रमश: प्रथम तथा द्वितीय मुख्य बिंदु कहते हैं। प्रथम फोकस दूरी तथा द्वितीय मुख्य बिंदु से द्वितीय फोकस बिंदु की दूरी को द्वितीय फोकस दूरी कहते हैं।
अभिलक्षण फलन (Characteristic Function)
प्रकाशीय यंत्रों के निर्माण में कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है, विशेषकर यह कि किसी बिंदुवत् वस्तु से आनेवाली सभी किरणें एक बिंदुवत् बिंब पर ही एकत्र हों, अर्थात् वे विपथन (aberration) के दोष से मुक्त हों। इस हेतु यह आवश्यक है कि बिंब में गोलीय तथा वर्णी विपथन न होने पाएँ, अन्यथा बिंब विकृत होगा और एक स्थान पर बनने के बजाय भिन्न भिन्न रंगों के कई बिंब बन जाएँगे। इन समस्याओं के निदान के लिये एक अभिलक्षण फलन ढूँढ़ना पड़ता है।
गाउसीय प्रकाशिकी (Gaussian Optics)
किसी वस्तु से चलकर अपवर्तक तल पर पहुँचनेवाली सभी किरणों द्वारा बननेवाले बिंब का विवेचन करने पर हमें पता चलता है कि वह बिंब क्षेत्रवक्रता (field curvature) तथा विकृति (distortion) आदि दोषों से युक्त रहता है। इसलिये गाउस ने केवल उन्हीं किरणों तक विचार सीमित रखने का सुझाव दिया, जो अपवर्तक प्रणाली के अक्ष के अत्यंत निकट से गमन करती हैं।
भौतिक प्रकाशिकी
भौतिकी में भौतिक प्रकाशिकी या तरंग प्रकाशिकी (physical optics या wave optics) प्रकाशिकी की वह शाखा है जो ब्यतिक्रम, विवर्तन, ध्रुवण तथा अन्य परिघटनाओं का अध्ययन करती है जिनके लिये ज्यामितीय प्रकाशिकी सही परिणाम नहीं देती।
प्रकाश
प्रकाश एक विद्युतचुम्बकीय विकिरण है, जिसकी तरंगदैर्ध्य दृश्य सीमा के भीतर होती है। तकनीकी या वैज्ञानिक संदर्भ में किसी भी तरंगदैर्ध्य के विकिरण को प्रकाश कहते हैं। प्रकाश का मूल कण फ़ोटान होता है। प्रकाश की तीन प्रमुख विमायें निम्नवत है।
तीव्रता जो प्रकाश की चमक से सम्बन्धित है
आवृत्ति या तरंग्दैर्ध्य जो प्रकाश का रंग निर्धारित करती है।
ध्रुवीकरण (कम्पन का कोण) जिसे सामान्य परिस्थितियों में मानव नेत्र से अनुभव करना कठिन है। पदार्थ की तरंग-द्रव्य द्विकता के कारण प्रकाश एक ही साथ तरंग और द्रव्य दोनों के गुण प्रदर्शित करता है। प्रकाश की यथार्थ प्रकृति भौतिकविज्ञान के प्रमुख प्रश्नों में से एक है।
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